परम पूज्य श्री श्याम लाल सक्सेना जी महाराज, परम पूज्य श्री लाला जी महाराज के सबसे कनिष्ठ शिष्य थे। सन 1931 में पूज्य लाला जी महाराज के निवार्ण के बाद, पूज्य बाबू जी ने अपने गुरूदेव की आध्यात्मिक शिक्षा को उत्तर भारत एवं अन्य क्षेत्र में फैलाने का काम अथक परिश्रम से किया।
परम पूज्य बाबू जी महाराज का जन्म एक छोटे से गांव ‘कटिया’, जिला बदांयू, उत्तर प्रदेश में हुआ था। वह अपने परिवार के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनके पिता, श्री मुंशी प्यारे लाल, जो कि कायस्थ कुल के, एक प्रसिद्ध जमीदांर थे और श्री हनुमान जी के भक्त थे। उनकी मा श्रीमती डाल कुवंर, एक सरल और धार्मिक महिला थीं। यह एक परमात्मा में आस्था रखने वाला परिवार था जहां जरूरतमदों को दान देना उनकी नैतिक शिक्षा में शामिल था। इस प्रकार, बहुत ही छोटी आयु में ही श्री श्याम लाल जी भक्ति भाव से परिपूर्ण थे। यहां तक कि अपने बचपन में भी वह अपनी उम्र के बच्चों की तुलना में कुछ विशिष्ट प्राप्त करने की लालसा रखते थे। कोई यह अनुमान नही लगा सकता था कि यही बालक आगे चलकर लोगों में भक्ती का नया भाव जागृत करेगा और उन्हे मोक्ष के मार्ग पर प्रेरित करेगा।
उनका जीवन कभी फूलों की शैया नही रहा। उनका कहना था कि वह आदमी सुखी है जिसका स्वभाव अपनी परिस्थितियों से मेल खाता है, लेकिन वह आदमी और ज्यादा सुखी है जो अपने स्वभाव को अपनी परिस्थितियों के अनुरूप नियन्त्रित कर सकता है।
पूज्य बाबू जी महाराज के तीन छोटे भाई और तीन बहनें थीं, जो आपके परमार्थिक कार्यों से अत्यन्त प्रभावित थे। आपका विवाह 9 जून, 1916 को सम्पन्न हुआ और आपको सात पुत्रों एवं दो पुत्रियों का सुख प्राप्त हुआ। आपके ज्येष्ठ पुत्र, डा0 आर0 के0 सक्सेना (पूज्य सेठ भाई साहब) एवं डा0 वी0 के0 सक्सेना (पूज्य दिन्नू भाई साहब), को अपने श्री रामाश्रम सत्संग का अध्यक्ष घोषित किया। आपकी ज्येष्ठ पुत्री श्रीमती सरोज सक्सेना का विवाह स्वर्गीय डा0 बी0 एन0 सक्सेना और आपकी छोटी पुत्री श्रीमती कुसुम सक्सेना का विवाह डा0 राज कुमार सक्सेना के साथ हुआ।
पूज्य बाबू जी महाराज की पूज्य लालाजी महाराज से मुलाकात अक्टूबर, 1915 में हुई। पूज्य बाबू जी महाराज ने अपनी डायरी में उन परिस्थितियों को अंकित किया है जो कि इस महत्वपूर्ण घटना के लिये उत्तरदायी थीं उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है -
‘‘ मैं और मेरे बहनोई छठी क्लास में साथ - साथ रहने लगे और मैं 1915 में सातवीं क्लास में पढ़ता था और यह जिन्दगी का पलटने वाला साल था। तबारीख यानी हिस्ट्री का घण्टा था उसमें हिस्ट्री पढ़ाया जा रहा था प्रसंग था कि राजा जनक विदेह थे। मास्टर साहब ने विदेह शब्द के माने समझाने की कोशिश की लेकिन लड़को के समझ में नही आया। खशूसन मेरे जहन्नशीन वह नही माने हुये और समझ में नही आया। हमारी क्लास में एक साथी माता चरण जी पढ़ते थे। वे कहने लगे कि अगर इजाजत हो तो मै लफ्ज ‘विदेह’ के मायने इनको समझा दूं। मास्टर साहब हॅंसे और बखुशी तमाम इजाजत दे दी। उसी साल अंग्रेजी जुबान के बजाय बर्नाकुलर (माध्यम) सांतवी जमात में हुआ था। इसलिये बहुत से शब्द समझ में भी मुश्किल से आते थे। पं माता चरण जी, परमात्मा उनकी आत्मा को शान्ति दे, मुझको इस तरह समझाने लगे - विदेह उसे कहते हैं जो देह धारी तो हो और दुनिया का सब काम करता हुआ निहायत खूबी के साथ उनको अंजाम दे और फिर भी एक सेकेन्ड के लिये भी परमात्मा की याद से खाली न हो। हर लम्हा ‘क्षण’ परमात्मा की याद में महव (लय) रहे और दुनिया के काम भी खराब न होने पाये। मै जैसा कि बयान कर चुका हूँ आर्य समाजी ख्यालात रखता था फौरन ही यह आलोचना करने लगा कि ऐसा हरगिज मुमकिन नही कि दुनिया के काम भी खराब न हों और परमात्मा की याद भी हर वक्त बनी रहे। एक वक्त में एक ही काम हो सकता है। पं माता चरण जी साहब ने ज्यादा बहस न करते हुए कहा कि साहब हम ओर ज्यादा तो कुछ जानते नहीं यहा भी एक साहब इसी तरह के रहते हैं जो सरकारी मुलाजमत भी करते हैं और परमात्मा की याद से भी खाली नहीं है। आप चाहें तो उन्हें देख लें और मुमकिन है तब आप मेरे जवाब से मुतमईन (संन्तुष्ट) हो जाये। मैनें उत्साह जाहिर किया और वादा किया कि जरूर शाम को वादा के मुताबिक उनकी खिदमत में हाजिर हो जाउंगा। हस्ब वादा शाम को गया लेकिन जिस मकान में आप तशरीफ रखते थे उस मकान के मालिक मुन्शी वहीद साहब के यहां मुशायरा था जिसमें आप भी बुलाये गये थे। उस रोज दूर से ही पं0 माता चरण जी ने दिखला दिया कि वो साहब हैं। चुकिं मुशायरा में देर थी मजबूरन मैं घर वापस चला आया और अगले रोज फिर शाम को उनके कदमों के दर्शन के लिये वहां पहुंचा। पं माता चरण जी ने कहा कि ये हमारी क्लास सातवीं दर्जा में पढ़ते हैं। फौरन ही आपने पूछा ‘‘क्या पूजा करने आये हो?’’ वे ऐसे प्रेम भरे अलफाज थे कि मुझे सिर्फ ये कहते बना कि आपकी दया मुझको आप के यहां ले आई, वरना मैं इस काबिल कहां।’’
परम पूज्य बाबू जी महाराज ने 1915 से परम पूज्य लाला जी महाराज से नियमित रूप से मिलना शुरू किया और उन्हें पूज्य लालाजी महाराज एवं उनके समस्त परिवार का प्रेम प्राप्त हुआ। पूज्य लाला जी अपने सभी शिष्यों को अपने पुत्रों के समान मानते थे। 1921 के एक शुभ दिन लाला जी महाराज ने बाबू जी महाराज को 5 पैसे की मिठाई लाने को कहा। इसके बाद आपने पूज्य बाबू जी महाराज को अपने पूज्यनीय गुरू परम पूज्य मौलवी फजल अहमद खान साहब के हाथ पर दीक्षा दी। बाबू जी महाराज उस वक्त महज 20 साल के थे।
परम पूज्य बाबू जी महाराज ने अपने विद्यालय की पढ़ाई 1919 में बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। इसके तुरंत बाद, आपके पिता जी बीमार पड़ गये और उनकी जाच कराने के लिये एक डाक्टर को बुलाया गया। डाक्टर के रूखे व अमानवीय व्यवहार को देख कर पूज्य बाबू जी महाराज इतने दुखी हो गये कि उन्होने डाक्टर बनने का निश्चय कर लिया। उस वक्त तक पूज्य लालाजी महाराज उनके जीवन का अपरिहार्य हिस्सा बन गये थे और वह सभी का पूज्य लाला जी की सहमति से करते थे। आपने अपने पिता जी से 4 रूपये लिये और सीधे फतेहगढ़ चले गये। अपने संवाद में आपने पूज्य लाला जी महाराज से अपने भविष्य का मार्ग पूछा। पूज्य लाला जी महाराज ने जवाब दिया कि उनकी नजर मे दो ही उत्तम पेशे हैं चिकित्सक और शिक्षक। पूज्य लाला जी महाराज का मत था कि अगर एक शिक्षक प्रेरणादायी है तो वह उपने विद्यार्थी के चरित्र निर्माण और इस प्रकार समाज के काया कल्प में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। वहीं एक चिकित्सक में इतनी क्षमता होती है कि वह एक ऐसे समय में किसी पीड़ित व्यक्ति को शारारिक दुख से मुक्ति दिलाता है और उसकी सेवा करता है जबकि उसके अपने रिश्तेदार उससे मुख मोड़ लेते हैं, जैसा कि घातक संक्रामक बीमारियों में होता है। अन्य पेशे केवल जीविका कमाने का एक साधन है। उन्होने पूज्य बाबू जी महाराज को चिकित्सक बनने के लिये प्रोत्साहित किया क्योंकि यह पीड़ित और जरूरतमंदों की सेवा का अवसर प्रदान करता है।
इसके उपरान्त, पूज्य बाबू जी महाराज आगरा के मेडिकल स्कूल में मेडिसिन का अध्ययन करने गये और 1932 में एल एम पी (लाइसेन्सिएट मेडिकल प्रेक्टिशनर) की डिग्री के साथ सफलतापूर्वक लौटे। पूज्य बाबू जी महाराज ने प्रारम्भिक तौर पर अपने जन्म स्थान कटिया (आलापुर, जिला बदायूं) से 2 मील दूर निजी प्रैक्टिस की। 6 माह के भीतर ही वह उस क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध हो गये। लेकिन परम पूज्य लाला जी महाराज ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था। पूज्य लाला जी महाराज का मानना था कि मेडिसिन के निजी प्रैक्टिस में व्यक्ति एक क्षेत्र विशेष में ही सीमित हो जाता है और वे चाहते थे कि पूज्य बाबू जी महाराज उनका दिव्य और आध्यात्मिक संदेश हर आम और खास तक पहुचाये। इसीलिये अपने गुरू के आदेशानुसार पूज्य बाबू जी महाराज ने जुलाई 1923 में 600 - 700 रूपये की मासिक आमदनी वाले निजी प्रैक्टिस को छोड़ कर 120 रूपये मासिक वेतन की सरकारी नौकरी आरंभ की। उनका यह निर्णय उनके पिता जी की इच्छा के विरूद्ध था जो कहते थे कि वे अपने पैत्रिक गांव मे ही रह कर प्रैक्टिस के साथ साथ जमीनदारी का कार्य भी संभाले।
पूज्य बाबू जी महाराज 1956 में सेवानिवृत्त हुए जब वह 55 वर्ष के थे, लेकिन उनके सराहनीय कार्यों के लिये सरकार ने उन्हें सम्मानित किया और उनका कार्यकाल 2 वर्ष के लिये बढ़ा दिया। अन्ततः पूज्य बाबू जी महाराज हापुड में अपने चिकित्सकीय कार्य से सेवानिवृत्त हुए। अपने कार्यकाल के दौरान सरकार की ओर से उन्हे कई बार सम्मानित किया गया।