सिलसिले को जारी रखने के लिये संतमत में यह नियम है कि जब बुजुर्ग यह समझते हैं कि अब उनको यह संसार छोड़ना है और अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का समय आ गया है तब वे, जिनको सत्संग का उत्तरदायित्व संभालने के उपयुक्त और एक आदर्श चरित्र का अधिकारी समझते है, उनको उस वख्त लिखित रूप से सिलसिले की इज़ाजत दे देते हैं जिससे सत्संग का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे। यह संतमत का सिद्धांत है कि महान दयालु गुरु अपने जीवन काल में ही अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते हैं और उन्हें लिखित रूप से इजाजत प्रदान करते हैं।
अपने समय के महान संत, परम पूज्य बाबू जी महाराज ने भी 13 फ़रवरी, 1972 दिन शनिवार को सिलसिले की इज़ाजत की पावन घोषणा को अपने दस्त मुबारिक से अपने रजिस्टर में लिख दिया था। लिखने के अतिरिक्त सन 1981 के भण्डारे के अवसर पर आपने अपने उत्तराधिकारी की घोषणा की थी जो आपके छोटे पुत्र श्री जी के सक्सेना ‘बब्बू’ तथा आपके प्रेमी शिष्य हापुड़ के जगदीश प्रसाद गुप्ता ने टेप की थी और उसको भंडारे के अवसर पर सुनावाया था और बाद में गाज़ियाबाद के वार्षिक भंडारे के दौरान समस्त सत्संगी भाईयों की उपस्थिति में आपने खुद यही घोषणा की। जिस समय यह घोषणा सुनाई गई उस वक्त एक ऐसी हालत हो गयी कि कलेजा खिचा आ रहा था और परिवार एवं सत्संग के सभी सदस्य के आँखों से आंसू की धार बह रही थी। अजब समां था अजीब सी हालत थी, खामोसी, नीरवता, जिसका बयान नही हो सकता है। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे जीवन समाप्त हो गया।
स्थान: गाजियाबाद
दिन: रविवार
समय: प्रातः 9 बजे
तारीख: 18, अक्टूबर, 1981
“गाजियाबाद 18 अक्टूबर, 1981 आज जब सब यहां अदभुत प्रेम से भरे हैं ख्यालात से खाली हैं यह देखकर मुझे बड़ी खुशी हुई। परमात्मा आपको ईश्वर का प्रेम कहीं ज्यादा दे ताकि यह रास्ता आपके लिये अति सुगम हो जाये।
मैं आज अपना सक्सेसर( उत्तराधिकारी) अपने दोनों बड़े लड़कों डा आर के सक्सेना एवं डा वी के सक्सेना को एप्वाइन्ट( नियुक्त) करता हूं । ये अपनी माता और अपने पांचों छोटे भाइयों और आप सबको देखेंगे। भाइयों जिन्होंने आज 24 वर्ष में मेरी बड़ी सेवा की है इनके सहयोग से इस भंडारे का इन्तजाम करेंगे। सत्संग के अध्यक्ष ये ही होंगे। ये ही सबको सत्संग करायेंगे लेकिन मदद सबसे लेंगे।
कुछ भाई ऐसे हैं जिनको मैं तालीम की इज़ाजत दे चुका हूं ये अपना तालीम का काम कर रहें हैं परमात्मा उनकी मदद करें। इन दोनों भाइयों से मैनें यह कह दिया है कि वे दस पांच रोज निकालकर जहां हमारे भाई हैं वहां सत्संग बड़ी मेहनत से करें और उनकी मदद करें। जिनमें खास कर बनारस, औड़ीहार, बलिया, समस्तीपुर, उजियारपुर, पटना और गया है। इसमें जितनी मदद कर सकते हो खूब करो और जो भाई ऐसे हैं जिनको इज़ाज्त है जिनको मैं नहीं लिख पाया खत में लिख कर भेज दूंगा। कोशिश यही हो कि सत्संग की सुन्दरता गायब न होने पाये। इसकी सुन्दरता बनी रहेगी। क्योंकि मैंने गलत आदमियों को बेकार का मौका नहीं दिया है।
जहां तक फ़तेहगढ़ का सवाल है वह हमारी जड़ है। हमारा सबका धर्म है, कि जब भी मौका मिले वहां जायें और उस दरबार की इज़्ज्त करें। उनके पोते दिनेश बाबू जो इस वक्त हैं इनको अपनी तरफ़ से कोई ऐसा मौका न दें कि उनका दिल दुखे। जो मदद उनकी कर सकते हों करें लेकिन साथ ही साथ किसी पार्टी बन्दी में कोई सत्संगी हमारे यहां का या हमारे लड़कों में से किसी पार्टी में पार्ट न ले। जो कुछ हो रहा है उसका इन्तजाम वहां के लोग बेहतर कर सकते हैं। हम लोगों को वहां की भलाई बुराई से कोई ताल्लुक नहीं है। जहां तक इस विद्या का ताल्लुक है विद्या दान सबसे श्रेष्ठ है लेकिन विद्या दान अच्छा हो। इसको गुरूदेव ने बहुत उदार चित से हम लोगों को बख्शा। मैं इतना ही कहूंगा कि यह विद्या इस वख्त बहुत कम सोसाइटी में मिलेगी। बल्कि करीब-करीब नहीं के बराबर। यह सोसाइटी बड़ी जीती जागती सोसाइटी है। इस विद्या के मुकाबले में यहां का दो, चार माह का बैठा हुआ सच्चा जिज्ञासु दूसरी जगह के 50 वर्ष के अभ्यासी से फ़ार सुपीरियर मिलेगा।
इसमें जहां जिक्र जगहों का आया है उसमें गोरखपुर रह गया है उसको और शामिल कर लें। बाकी मुझे जो याद आयेगा या मौका मिलेगा तो मैं सत्संग के वख्त जिक्र करता रहुंगा।
भाइयों से प्रार्थना है कि सच्चाई से ये सारा वख्त चारों दिनों का सिर्फ़ ईश्वर के नाम व ईश्वर की चर्चा में खर्च करें। फ़िजूल की बातों में अपना वख्त न खर्च करें। यह चार दिन साल के सिर्फ़ परमार्थ के लिये अलग रख दिया करें। परमात्मा सबका भला करें। यह मेरी प्रार्थना है कि जो भाई आयें हैं वह प्रेम से भरे हुए वापस जायें। जब उनको मौका हो वक्तन, फवक्तन अपनी कुशल का खत लिखते रहें। बस आज के लिये इतना ही काफ़ी है।
परम पूज्य बाबू जी महाराज ने अपने दोनों ज्येष्ठ पुत्र डा आर के सक्सेना तथा डा वी के सक्सेना को सत्संग का उत्तराधिकारी नियुक्त किया। वे सत्संग अध्यक्ष हैं और पूर्ण इज़ाजत: ‘इज़ाजत ताअम्मा’ से सम्मानित हैं। जिन्हें यह इज़ाजत प्राप्त होती है केवल वे ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर सकते हैं जिससे आने वाले समय में सत्संग का कार्य सुचारु रूप से चलता रहे। वह महान गुरू (जो अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करता है), अपनी इच्छाशक्ति से अपनी आध्यात्मिक कमाई को अपने उत्तराधिकारी में हस्तांतरित कर देता है। । इस चर्चा से यह बात स्पष्ट होती है कि गुरु सत्संग का भार सिर्फ उन्हीं को सौंपता है जिनमे गुरू के प्रति पूर्ण समर्पण एवं बेलौस प्रेम और साफ़ चित्त होता है।
परम पूज्य बाबू जी महाराज ने अपने जीवनकाल में 19 लोगों को इज़ाजत तालीम एवं आपके दो पुत्र श्री जी के सक्सेना(बब्बू), श्री एन के सक्सेना सहित 15 लोगों को इज़ाजत सत्संग प्रदान किया जिसको आपने दिनांक 22.1.86 को अपने रजिस्टर में अंकित किया है। जैसा कि आपके रजिस्टर में अभिलेखित है आपने कुल मिलाकर 452 व्यक्तियों को दीक्षा दिया। इसके अतिरिक्त 50 व्यक्ति, जो की बिजनौर के रहने वाले हैं, को भी आपसे दीक्षा प्राप्त है, पर इसका उल्लेख आपके रजिस्टर में नहीं है। इस तरह आपने सत्संग के कार्य को अलग अलग शाखाओं में विस्तारित कर दिया जिससे कि स्थानीय सत्संग मजबूत हो सके। परमात्मा की कृपा और बुजुर्गान सिलसिला के आशीर्वाद से सत्संग अभी भी आपके आदेर्शों और सिद्धान्तों का पालन करते हुए सुचारु रूप से चल रहा है।
स्वामी बनने की कभी कोशिश न करना, सदा सेवक बन कर काम करना। दूसरों की सेवा करना तुम्हारा तुम्हारे गुरू और मानव जाति के प्रति परम कर्तव्य है।
यह दावा किसी बात का कभी न करना कि इतने समय में यहाँ कुछ हासिल करा दिया जायेगा। क्योंकि तुम स्वामी नही हो, यह व्यक्ति के पिछले संस्कार, समर्पण और साथ में ईश्वर एवं गुरू कृपा पर निर्भर करता है। सभी संतों का हर तरह से उसी तरह आदर करो जैसा की तुम अपने गुरु का करते हो।
अपनी कथनी और करनी में हर तरह से सच्चाई बरतो और कभी किसी को कष्ट मत पहुंचाओ।
अर्थात अच्छे बनो और अच्छे कर्म करों। अगर किसी का भला नहीं कर सकते तो कम से कम ऐसा कोई काम मत करो जो धर्म शास्त्र के विरुद्ध हो या जिससे बुजुर्गों का नाम खराब हो क्योंकि जो व्यक्ति सत्संग से जुड़ा है उसके कर्म उस सत्संग की छवि को प्रदर्शित करते हैं। सही कर्म, सही सोच, सही आचरण और अनुशासित जीवन सत्संग के लिये परम आवश्यक हैं। जैसा कि परम पूज्य लाला जी ने कहा था “हम मुक्कमिल इन्सान बनाते हैं” आदर्श कर्म, विचार एवं कर्तव्य सत्संग के मूल आधार हैं।
परम पूज्य बाबू जी महाराज ने अपने ही उदाहरण द्वारा हमें यह शिक्षा दी है कि जीवन की बाधाओं को नज़रअंदाज़ कर हमें केवल ईश्वर प्रदत्त अवसरों का लाभ उठाना चाहिये। पूज्य बाबू जी महाराज का जीवन कठिनाइयों से भरा था (उनके जीवन का विवरण डा वी के सक्सेना द्वारा लिखित ‘अनमोल सन्त चरित्र’ में दिया गया है) फिर भी आप अपने माता-पिता, भाई-बहनों, अपने गाँव और शहर जहाँ भी आपने निवास किया और अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य को कभी नहीं भूले। लेकिन इसी के साथ आपने अपने गुरुदेव परम पूज्य लाला जी महाराज की शिक्षाओं का कठोरता से पालन किया। आपने गुरु परिवार के सदस्यों का हमेशा बहुत आदर किया। ऐसे समय में जब समाज हिन्दु और मुस्लिम में मेल मिलाप की इज़ाजत नहीं देता था, आपके गुरू ने जाति और धर्म में कोई भेदभाव न कर एक महान मुस्लिम संत से तालीम प्राप्त की। परम पूज्य बाबू जी महाराज का भी इसमें पूर्ण विश्वास था और आपने तीन मुस्लिम शिष्यों को दीक्षा दी और बिना भेदभाव श्री अब्दुल रहीम अंसारी को इज़ाजत प्रदान की क्योंकि आपके गुरू का विश्वास था कि आध्यात्मिक्ता सभी धर्मों से ऊपर है। यह एक जीवन पद्धति है जिसमे आंतरिक अनुभव को महत्व दिया जाता है नाकि बाहरी दिखावा, जाती-धर्म, अमीरी-गरीबी आदि को। आध्यात्मिक्ता अन्तःकरण की सच्चाई, अमरता, आत्मिक सजगता, अन्तःशक्ति और ईश्वर प्रदत्त परमानन्द का वह क्षण है जो व्यक्ति के जीवन की सर्वश्रेष्ठ पूँजी है। आध्यात्मिक्ता का बुद्धिमत्ता या ज्ञान से कोई संबंद्ध नहीं है क्योंकि ज्ञान का केंद्र बुद्धि (मस्तिष्क) है और ऐसा देखा गया है कि ज्ञानी जन हमेशा अपने ही विचारों से धोखा खाते हैं और सही मार्ग को छोड़ देते हैं। परम पूज्य बाबू जी का कहना था कि बुद्धिमत्ता और परमार्थ में भ्रमित नहीं होना चाहिये। दुनिया में कई ‘बुद्धिमान मूर्ख’ व्यक्ति मौजूद हैं जो कि अपनी बुद्धि का प्रयोग अपने विचारों की तर्कसंगतता सिद्ध करने और वाद-विवाद में करते हैं परंतु वे अपनी अक्ल अपने भ्रम के निराकरण में कभी इस्तेमाल नहीं करते हैं। वे आध्यात्मिक्ता के यथार्थ को समझने का कभी प्रयास नहीं करते हैं। ऐसे लोग बुद्धिमान, धनी और ताकतवर होने के बावजूद कभी परमार्थ के पथ पर चलने का साहस नहीं कर सकते। परम पूज्य बाबू जी महाराज हमेशा अपने पुत्रों को ऐसे व्यक्तियों के संग समय व्यर्थ न करने के लिये सचेत करते थे लेकिन साथ ही ऐसे व्यक्तियों के लिये प्रार्थना करने की सलाह देते थे क्योंकि हमें ईश्वर रचित किसी भी प्राणी को ठुकराने का अधिकार नहीं है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ईश्वर सभी से प्रेम करता है।
परम पूज्य बाबू जी महाराज अपने गुरू की तरह ही सदैव सादा जीवन व्यतीत करने पर जोर देते थे। आपने हमेशा यह शिक्षा दी और सचेत किया कि सांसारिक वस्तुओ के प्राप्ति की कामना नहीं होनी चाहिये। व्यक्ति सांसारिक वस्तुओ से कभी परमानन्द की प्राप्ति नहीं कर सकता है। क्योंकि सच्चा और अनन्त प्रेम आत्मा मे ही निहित है, इसलिये मनुष्य जब तक उस परमात्मा के अंश का साक्षात्कार नहीं कर लेता तब तक वह पूर्ण रूप से सुखी नहीं रह सकता है। पूज्य लाला जी ने एक बार स्पष्ट रूप से कहा था कि “मैं और नन्हें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ़ देखोगे तो मुझे पाओगे और दूसरी तरफ़ नन्हे को”। उनका आशय यह था कि उनमें और पूज्य चाचा जी महाराज में कोई फर्क नहीं है। जहां तक ज्ञात है आपके किसी भी शिष्य ने आपके इस कथन के अभिप्राय को नहीं समझा और न ही इसका अनुसरण किया। परंतु परम पूज्य बाबू जी महाराज ने परम पूज्य चाचा जी महाराज का उतना ही आदर किया जितना आप परम पूज्य लाला जी महाराज का करते थे। आपने अपने पूज्यनीय गुरू के समस्त आदेशों, निर्देशों और सलाह का अक्षरशः पालन किया और इसलिये जीवन भर आपको गुरूदेव का विशेष आशीर्वाद प्राप्त हुआ। आपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन कोई भी विषम परिस्थिति आपके परम पूज्य लाला जी महाराज के प्रति दृढ़-विश्वास को नहीं हिला सकी। जीवन के ऐसे सुन्दर गुणों से सुशोभित, आपको आपके गुरू और साथ ही परम पूज्य चाचा जी महाराज का स्नेह प्राप्त हुआ।
पूज्य बाबू जी महाराज के सादगी और स्वाभाविक विनम्रता से परिपूर्ण व्यवहार ने आपको अत्यधिक स्नेहिल व्यक्ति बना दिया। उस समय के सभी लोग, अपने सभी गुरू भाइयों, परम पूज्य लाला जी महाराज के परिवार के समस्त सदस्य, परम पूज्य चाचा जी, परम पूज्य बाबू बृज मोहन लाल जी, परम पूज्य जगमोहन नारायण जी, परम पूज्य जिज्जी (परम पूज्य लाला जी महाराज की धर्मपत्नी), परम पूज्य डा चतुर्भुज सहाय जी से आप बहुत प्रेम करते थे। आपके प्रिय गुरुभाई डा श्रीकृष्ण लाल भटनागर से आपका प्रेम कुछ अधिक ही था।
परम पूज्य ताऊ जी कहा करते थे कि “चिराग ले कर ढ़ूढ़ने पर भी डा श्याम लाल जी की तरह हीरा नहीं मिलेगा”। परम पूज्य बाबू जी महाराज का महान चरित्र उपरोक्त सभी ईश्वरीय गुणों का समागम था। आप अपने सभी गुरू भाइयों में उम्र में सबसे छोटे थे। आपने सभी का बहुत आदर किया और और सभी आपको सच्चा प्रेम करते थे।