श्रीरामाश्रम सत्संग

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परम पूज्य बाबू जी महाराज का परमार्थिक दृष्टीकोण एवं शिक्षा

मानव इतिहास में ऐसे कई मौके आये हैं जब सही और गलत के बीच में निर्णय लेना बहुत मुश्किल हो जाता है। इस पृथ्वी पर जीवन की असीम संभावनाओं और परिपूर्णता को न समझ पाने के कारण ही मनुष्य अपने आप को ईश्वर से दूर करता जाता है और इस परित्याग का परिणाम हमारी सोच से परे है। निराशावादिता के इस भँवर से मनुष्य को उबारने के लिये समय समय पर महान आत्माओं का अवतरण होता रहा है जो मनुष्य और ईश्वर के बीच एक सेतु की भूमिका निभाते हैं। रामाश्रम सत्संग में हमारा यह विश्वास है कि इन्हीं ‘ब्रह्म पुरुष’ के माध्यम से ईश्वर मानव जाति तक अपना ज्ञान पहुंचाता है और प्राचीन काल की तरह आज भी आध्यात्मिकता की यह धारा निरंतर रुप से बह रही है।

ईश्वर द्वारा भेजे गए इन संतों ने समय, वातावरण और जीवन पद्धति के अनुसार परमार्थ प्राप्ति के सिद्धांतों को निर्धारित किया है। बाबू जी महाराज की शिक्षाऐं सीधे आपके पूज्य गुरुदेव परम पूज्य लाला जी महाराज की शिक्षाओं से व्युत्पन्न हैं जिनका उन्होंने बहुत सख्ती से पालन किया है और जीवन भर प्रचार-प्रसार किया है।

परमार्थ मूलतः चार चीज़ों पर आधारित है :-

शरीयत( जीवन यापन का तरीका)
तरीकत( पूजा करने का तरीका)
मारफ़त( ज्ञान का स्रोत , गुरू)
हकीकत( एकमात्र सत्य ईश्वर और उसका साक्षात्कार )

शरीयत: शरीयत से मतलब यह है कि अभ्यासी के जीवन यापन का तरीका जैसे कि खान पान, रहन सहन, वेश भूषा जो कि उसकी संगति एवं वातावरण पर निर्भर करता है। यह जन्म से ही पूर्व निर्धारित होता है।
तरीकत: तरीकत से मतलब यह है कि पूजा करने का तरीका जिस पर चल कर अभ्यासी अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। यह भी हर व्यक्ति के लिये भिन्न होता है परतुं मकसद हर एक का एक ही होता है।
मारफ़त: मारफ़त से मतलब यह है कि अभ्यासी का किस गुरू से वास्ता है या किसके जरिये वह इस लक्ष्य प्राप्ति का साधन कर रहा है।
हकीकत: हकीकत का मतलब यह है कि ईश्वर एक है जिसको हर धर्म, हर जमात एवं सारे प्राणी मानते हैं। वह सर्वोच्च है और यहीं मानवता के लिए एकमात्र सार्वभौमिक सत्य है।

रामाश्रम सत्संग में शरीयत: एक पालन योग्य आदर्श :-

छ्ह ईश्वरीय गुण जो सत्संगियों के लिये अनिवार्य है:

  1. दान
  2. दया
  3. दीनता
  4. क्षमा
  5. सच्चाई
  6. प्रेम

छ्ह अवगुण जिनसे सत्संगियों को बचना चाहिये :-

  1. काम
  2. क्रोध
  3. लोभ
  4. मोह
  5. ईर्ष्या
  6. अहंकार

सत्संगियों को सरल स्वभाव का और सदाचारी होना चाहिए तथा उन्हे सभी सांसारिक कर्तव्यों का पालन सच्चाई और ईमानदारी से करना चाहिए।

रामाश्रम सत्संग में तरीकत

परम पूज्य बाबू जी बार बार जोर देते थे कि जीवित गुरु का होना अति आवश्यक है जो अभ्यास में पूर्ण मार्ग दर्शन करता है। गुजरे हुए बुजुर्गों से उनकी दया एवं आशीर्वाद मिल सकता है परंतु पूर्ण मार्ग दर्शन नहीं मिल सकता।

परम पूज्य बाबू जी महाराज ने अभ्यास की तीन सीढ़ियों को स्पष्ट किया है :-

  1. जाप: जाप अभ्यास की सबसे पहली सीढ़ी है। भजन, प्रार्थना, मंत्र जाप यह सब जाप के ही अंग हैं। अभ्यासियों को यह प्रयत्न करना चाहिये कि जाप करते समय जबान, मन और चित्त तीनों शामिल रखें, यही असली जाप है जिसे ज़िक्रे खफ़ी भी कहते हैं।
  2. सुमिरन: सुमिरन का शाब्दिक अर्थ याद है। अपने इष्ट गुरु के सुमिरन करने से गुरु से नजदीकी होती है और इसी सुमिरन से फ़नाइयत हो जाती है जो मोक्ष की तरफ़ ले जाता है। केवल वे ही सुमिरन का अनुभव कर सकते हैं जिन्होंने अपने गुरुदेव के जीवन काल में उनकी सोहबत प्राप्त की है।
  3. ध्यान: सुमिरन की अवस्था के पश्चात जब अभ्यासी की इन्द्रियाँ और मन शान्त होते हैं तो चित्त से वह अपने इष्ट का ध्यान करता है। उसके सामने उसके ईष्ट के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता है। इसी के द्वारा साधक समाधि, महा समाधि की अवस्था को प्राप्त करता है। जागृत समाधि की अवस्था में भक्त पर ईश्वरीय भेद खुलते हैं। ध्यान की अवस्था से बढ़ते-बढ़ते अभ्यासी सतलोक तक पहुँच जाता है।

रामाश्रम सत्संग में मारफ़त: परम पूज्य लाला जी महाराज हमारे आदिगुरू हैं। परम पूज्य बाबू जी महाराज ही साधना के मार्ग पर हमारे प्रदर्शक हैं।

रामाश्रम सत्संग में हकीक़त: ‘हकीकत’ सभी के लिये परम सत्य को प्रदर्शित करता है। पूजा केवल एक परम पिता परमात्मा की होनी चाहिये जो कि सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। पूजा के तरीके में अंतर हो सकता है,परंतु ईश्वर की हुकूमत की सत्य अनुभूति ही ‘हकीकत’ है। वहीं सच्चा मालिक है जो कि अनन्त, अविनाशी और अमिट है जबकि बाकी संसार नश्वर है और उसका विनाश एक दिन निश्चित है। विश्वास की यह अवस्था केवल गुरू के मार्गदर्शन से ही प्राप्त करना संभव है, केवल किताबी ज्ञान उसके लिये पर्याप्त नहीं है।

संतमत के चार स्तंभ :-

  1. संस्कार
  2. 2)सदगुरू
  3. 3)सतनाम
  4. 4)सत्संग

1)संस्कार: हमारे विचार ही मन को आकार देते हैं और यही मन विचारों के निरंतर प्रवाह को जन्म देता है। यह बहुविध विचार ही मनुष्य के कर्म को काम, क्रोध आदि के द्वारा संचालित करते हैं। मनुष्य के विचार धार्मिक तथा पवित्र अथवा बुरे और अपवित्र हो सकते हैं। यह विचार एवं कर्म ही हमारे संस्कार के जनक होते हैं और यहीं मनुष्य के जन्म को निर्धारित करते हैं। जो मनुष्य पिछले जन्म से ही भक्ति एवं प्रेम का पैदाइशी संस्कार लाते हैं, उनका जन्म ऐसे वातावरण में होता है जहाँ जन्म से ही उन्हें ईश्वर नाम के सब साधन मिल जाते हैं। इन्हीं के जिम्मे अधिकतर तालीम का काम रहता है।

2)सदगुरु: वह संत जिनकी पहुँच सचखण्ड तक होती है वह सदगुरु कहलाते हैं। वे जरूरतमंदों का कल्याण करने और उन्हें परमार्थ के पथ पर अग्रसर करने के लिये ही अवतरित होतें हैं। बगैर सदगुरु के ईश्वर प्राप्ति नामुमकिन है। सदगुरु को ईश्वर का स्थूल रूप समझना चाहिये।

3)सतनाम: सदगुरू के द्वारा दीक्षा के समय प्रदान किया गया नाम ही सतनाम है। अभ्यासी इसी नाम के सहारे माया के हमलों और गलतियों से बचते हुए ईश्वर तक पहुँच सकता है।

4)सत्संग: अभ्यासी के लिये सत्संग अति महत्वपूर्ण है क्योंकि सत्संग से ही अभ्यासी को आध्यात्म की गहराईयों का अनुभव होता है। सत्संग से अभ्यासी में स्थिरता आती है और इंद्रियां शांत होती हैं। सत्संग का शाब्दिक अर्थ है ‘गुरू का संग’। सत्संग के दौरान ही गुरू अपना असीम प्रेम अपने शिष्यों में भर देता है। इसीलिये गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है:

बिनु सत्संग विवेक न होई,
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

अर्थात: सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं।

सत्संग ईश्वर प्राप्ति का साधन है। जब मनुष्य के संस्कार जागृत होतें हैं तो उसे सदगुरु मिल जाते हैं जिनके मार्गदर्शन से ब्रह्मज्ञान हो जाता है। जब ब्रह्मज्ञान होता है तो जन्म जन्मांतर का सारा अंधेरा दूर हो जाता है।